उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
प्रेमचन्द का ‘कर्मभूमि’ उपन्यास एक राजनीतिक उपन्यास है जिसमें विभिन्न राजनीतिक समस्याओं को कुछ परिवारों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। ये परिवार यद्यपि अपनी पारिवारिक समस्याओं से जूझ रहे हैं तथापि तत्कालीन राजनीतिक आन्दोलन में भाग ले रहे हैं। उपन्यास का कथानक काशी और उसके आसपास के गाँवों से संबंधित है। आन्दोलन दोनों ही जगह होता है और दोनों का उद्देश्य क्रान्ति है। किन्तु यह क्रान्ति गाँधी जी के सत्याग्रह से प्रभावित है। गाँधीजी का कहना था कि जेलों को इतना भर देना चाहिए कि उनमें जगह न रहे और इस प्रकार शान्ति और अहिंसा से अंग्रेज सरकार पराजित हो जाए।
इस उपन्यास की मूल समस्या यही है। उपन्यास के सभी पात्र जेलों में ठूंस दिए जाते हैं। इस तरह प्रेमचन्द क्रान्ति के व्यापक पक्ष का चित्रण करते हुए तत्कालीन सभी राजनीतिक एवं सामाजिक समस्याओं को कथानक से जोड़ देते हैं। निर्धनों के मकान की समस्या, अछूतोद्धार की समस्या, अछूतों के मन्दिर में प्रवेश की समस्या, भारतीय नारियों की मर्यादा और सतीत्व की रक्षा की समस्या, ब्रिटिश साम्राज्य के दमन चक्र से उत्पन्न समस्याएँ, भारतीय समाज में व्याप्त धार्मिक पाखण्ड की समस्या, पुनर्जागरण और नवीन चेतना के समाज में संचरण की समस्या, राष्ट्र के लिए आन्दोलन करने वालों की पारिवारिक समस्याएँ आदि इस उपन्यास में बड़े यथार्थवादी तरीके से व्यक्त हुई हैं।
प्रेमचन्द की रचना कौशल इस तथ्य में है कि उन्होंने इन समस्याओं का चित्रण सत्यानुभूति से प्रेरित होकर किया है कि उपन्यास पढ़ते समय तत्कालीन राष्ट्रीय सत्याग्रह आन्दोलन पाठक की आँखों के समक्ष सजीव हो जाता हैं। छात्रों तथा घटनाओं की बहुलता के बावजूद उपन्यास न कहीं बोझिल होता है न कहीं नीरस। प्रेमचन्द हर पात्र और घटना की डोर अपने हाथ में रखते हैं इसलिए कहीं शिथिलता नहीं आने देते। आदर्शोन्मुख यथार्थवाद से ओतप्रोत ‘कर्मभूमि’ उपन्यास प्रेमचन्द की एक प्रौढ़ रचना है जो हर तरह से प्रभावशाली बन पड़ी है।
कर्मभूमि
पहला भाग
१
हमारे स्कूलों कालेजों में जिस तत्परता से फ़ीस वसूल की जाती है, शायद मालगुज़ारी भी उतनी सख़्ती से नहीं वसूल की जाती। महीने में एक दिन नियत कर दिया जाता है। उस दिन फ़ीस का दाख़िला होना अनिवार्य है। या तो फ़ीस दीजिए, या नाम कटवाइए, या जब तक फ़ीस न दाख़िल हो, रोज़ कुछ ज़ुर्माना दीजिए। कहीं-कहीं ऐसा भी नियम है कि उसी दिन फ़ीस दोगुनी कर दी जाती है, और किसी दूसरी तारीख़ को दुगुनी फ़ीस न दी तो नाम कट जाता है। काशी के क्वींस कालेज में यही नियम था। सातवीं तारीख़ को फ़ीस न दो, तो इक्कीसवीं तारीख़ को दुगुनी फ़ीस देनी पड़ती थी, या नाम कट जाता था। ऐसे कठोर नियमों का उद्देश्य इसके सिवा और क्या हो सकता था, कि ग़रीबों के लड़के स्कूल छोड़कर भाग जायँ। वही हृदयहीन दफ़्तरी शासन, जो अन्य विभागों में है, हमारे शिक्षालयों में भी है। वह किसी के साथ रिआयत नहीं करता। चाहे जहाँ से लाओ, क़र्ज़ लो, गहने गिरवी रखो, लोटा-थाली बेचो, चोरी करो, मगर फ़ीस ज़रूर दो, नहीं तो दूनी फ़ीस देनी पड़ेगी, या नाम कट जाएगा। ज़मीन और जायदाद के कर वसूल करने में भी कुछ रिआयत की जाती है। हमारे शिक्षालयों में नर्मी को घुसने नहीं दिया जाता। वहाँ स्थायी रूप से मार्शल-लॉ का व्यवहार होता है। कचहरी में पैसे का राज, हमारे स्कूलों में भी पैसे का राज है, उससे कहीं कठोर, कहीं निर्दय। देर में आइये तो जुर्माना; न आइए तो जुर्माना; सबक़ न याद हो तो जुर्माना; किताबें न खरीद सकिए तो जुर्माना; कोई अपराध हो तो जुर्माना; शिक्षालय क्या है, जुर्मानालय है। यही हमारी पश्चिमी शिक्षा का आदर्श है, जिसकी तारीफ़ों के पुल बाँधे जाते हैं। यदि ऐसे शिक्षालयों से पैसे पर जान देने वाले, पैसे के लिए ग़रीबों का गला काटने वाले, पैसे के लिए अपनी आत्मा को बेच देने वाले छात्र निकलते हैं, तो आश्चर्य क्या है?
आज वही वसूली की तारीख़ है। अध्यापकों की मेज़ों पर रुपयों के ढेर लगे हैं। चारों तरफ़ खनाखन की आवाज़ें आ रही हैं। सर्राफ़े में भी रुपये की ऐसी झंकार कम सुनाई देती है। हरेक मास्टर तहसील का चपरासी बना बैठा हुआ है। जिस लड़के का नाम पुकारा जाता है, वह अध्यापक के सामने आता है, फ़ीस देता है और अपनी जगह पर आ बैठता है। मार्च का महीना है। इसी महीने में अप्रैल, मई और जून की फ़ीस भी वसूल की जा रही है। इम्तहान की फ़ीस भी ली जा रही है। दसवें दर्जे में तो एक-एक लड़के को चालीस रुपये देने पड़ रहे हैं।
अध्यापक ने बीसवें लड़के का नाम पुकारा–‘अमरकान्त!’
अमरकान्त ग़ैरहाज़िर था।
अध्यापक ने पूछा– ‘क्या आज अमरकान्त नहीं आया?
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